JHIRI MELA


Story of Baba Jitto Ji & Bua Kodi Ji 

वैष्णवी दुर्गा के महान भक्त अमर बलिदानी किसान बावा जित्तमाल डुग्गर देश के कुल देवताओं के सिरमौर माने जाते हैं जिनका जन्म कटरा वैष्णोदेवी के समीप अघार गाँव के एक साधारण ब्राहमण परिवार में कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ था वे माता जांजां और पिता रूपचंद की इकलौती संतान थे माता-पिता ने उनका नाम जितमल रखा था वे बहुत स्वाभिमानी होने के साथ-साथ श्री माता वैष्णो देवी के परम भक्त थे

वे प्रातःकाल अपने गाँव से पैदल माता वैष्णो देवी की पवित्र गुफा में जाकर स्नान कर दर्शन करते थे और उसके बाद ही अन्नजल ग्रहण करते थे बाराह वर्ष की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और वरदान स्वरूप अपने एक अंश के साथ उनके घर पुत्री होकर बुआ कौड़ी के रूप में जन्म लिया पुत्री के जन्म के बाद उनकी पत्नी इच्छरा का स्वर्गवास हो गया उन्हों ने बड़े प्रेम एवं श्रद्धा भक्ति से अपनी बेटी का पालन-पोषण किया वे बड़े धर्मनिष्ठ किसान थे और खेती-बाड़ी करके अपना पालन पोषण करते थे

उनके सात चचरे जोकि उनके मौसरे भाई थे उन भाइयों ने उनकी ज़मीन हड़पने के लिए कई बार उनकी हत्या का प्रयास किया लेकिन भगवती दुर्गा ने हर बार उनके प्राणों की रक्षा की अपनी मौसी जोजां और उसके बेटों की दुष्टता के कारण अपनी पाँच वर्षीय बेटी बुआ कौड़ी की सुरक्षा के लिए अपना पैतृक गाँव को त्याग दिया और घरोटा जागीर के गाँव गढ़-पंजोड़ में अपने मित्र रल्लो लुहार के पास आ गए

     उस जागीर का जागीरदार मेहता वीर सिंह बहुत क्रूर एवं निर्दयी जागीरदार था वह जम्मू के महाराजा अजैव देव जी का मामा भी था उस समय महाराज मात्र बारह वर्ष के थे और उस समय वीर सिंह की राज दरबार में बहुत प्रतिष्ठा थी जित्तमल जी अपने मित्र पर बोझ नहीं बनना चाहते थे इसलिए वह खेती-बाड़ी के लिए पट्टे पर कुछ भूमि लेने के लिए अपने मित्र रल्लो लोहार के साथ मेहता वीर सिंह से मिले और आने का कारण बताया जागीरदार ने ब्राहमण जान उन्हें बहुत से धार्मिक क्रियाकलापो का तथा मन्दिर में पुजारी पद देनें का प्रस्ताव रखा लेकिन जित्तमल जी ने पट्टे पर भूमि लेने का आग्रह किया क्योंकि वे एक धर्मनिष्ठ किसान थे और भूमि से किसान का माता-पुत्र का सम्बन्ध मानते थे जागीरदार ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए गुढ़ा सिंघु नामक एक जंगल की कठोर और बंजर भूमि खेती-बाड़ी के लिए इस आधार पर दीं की जित्तमल जी पैदावार का एक चौथाई हिस्सा जागीरदार को दिया करेंगे
     जित्तमल जी ने माता वैष्णो देवी के पावन धाम त्रिकूट पर्वत को नमस्कार करके जंगल साफ़ करने का काम आरम्भ किया और जंगल के रखवाले जो चतुर्थ वर्ण हरिजन समाज के ईसो मेघ के साथ मिल कर दिन-रात कठिन परिश्रम कर के उस ऊसर भूमि को खेती के लिए बनाया और वहाँ एक दिव्य सरोवर का निर्माण किया कहते हैं कि अनेक दिव्य शक्तियों ने इस कार्य में जित्तमल जी की सहायता की खेत के लिए गेंहू का बीज काह्नाचक के गुसाईं नत्थू शाह जी से उधार में प्राप्त किया
     भगवती की कृपा से जित्तमल जी का कठिन परिश्रम रंगलाया उसके खेत की इतनी अच्छी पैदावार देखा कर सभी हैरान रह गए उस रोज़ विक्रमी सम्वत १४५८ की आषाढ़ पूर्णिमा का दिन था खलिहान में सोने जैसा गेहूं देख कर  जागीरदार मेहता वीर सिंह लालची हो गया और चौथाई हिस्से के बजाय फसल का आधा हिस्सा माँगने लगा जित्तमल जी निर्धारित बात से अधिक गेहूं देने को तैयार नहीं हुये इस पर मुंहजोर जागीरदार के इशारे पर उसके कारिंदे सारा अनाज खच्चरों पर लादने लगे . जागीरदार की लूट-खसूट, अन्याय  और किसानों का  शोषण होते देख जितमल ने मेहता वीरसिंह को ललकारते हुए कहा , “ रे दुष्ट महते, सूखी गेंहू क्यों खाते हो ,लो मैं इसमें अपना रक्त और मांस भी मिला देता हूँ.” .इतना कह कर जित्तमल जी ने वैष्णवी दुर्गा की प्रेरणा से इस ज़ुल्म के विरुद्ध अपने हृदय में कटार घोंप कर आत्म-बलिदान कर दिया यह देख कर ब्रह्म-हत्या के भय से डर कर जागीरदार और उसके कारिंदे गेंहू छोड़ कर भाग गये देवी माता के परम भक्त के साथ हुए घोर अन्याय पर  प्रकृति इतनी क्रुद्ध हुई कि तभी भयंकर आंधी तूफ़ान आया और तेज़ बारिश में सारा अनाज बह गया

पिता के बलिदान का समाचार सुन बुआ कौड़ी पर मानो बिजली गिर पड़ी थी उसका विलाप सुन कर सभी की आँखें भर आईं अब वह पाँचवर्षीय कन्या संसार में अकेली रह गई थी.

        गोसाईं नत्थू शाह जी रल्लो लोहार एवं ईसो मेघ को साथ लेकर झिड़ी जंगल मे बैहरी नदी के किनारे अपने बलिदानी बापू की चिता को मुखाग्नि दी और पिता की चिता में छलांग लगाकर पञ्च-तत्व में विलीन होकर सती हो गई जितमल जी के बैलों की जोड़ी ने भी अपने मालिक के वियोग में प्राण त्याग दिए.

बलिदान के बाद जित्तमल जी को बावा जित्तो के रूप में अनेक जाति-बिरादरियों ने अपना कुल देवता मानना शुरू कर दिया . सयालकोट के आनन्द जाती के दो खत्री भाइयों सुद्धू और बुद्धू को सपने में आकर बावा जित्तो ने दर्शन दिए और झिड़ी के जंगल में समाधि बनाने का आदेश दिया और कहां की जीवन मे मैंने एक उधार लिया और मैं उसे चुका नहीं पाया इस लिए आप मेरे समाधि स्थान पर गोसाईं नत्थु शाह जी को गद्दी विराजमान करना जिस स्थान पर बावा जित्तो ने जंगल साफ़ करके खेत बनाए थे उसे आज “बावे दा तालाब” के नाम से और जहाँ चिता जलाई थी उसे "बावे दा जाड़ झिड़ी" के नाम से जाना जाता है. इस तालाब में पवित्र स्नान के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं बावा जित्तो की बलिदान-भूमि होने के कारण झिड़ी को जम्मू प्रान्त के एक पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है. यहाँ हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर सप्ताह भर के लिए विशाल मेला लगता है जिस में जम्मू कश्मीर के इलावा हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान और दिल्ली सहित अनेक राज्यों से हज़ारों लाखो मेहरा, अरोड़ा, खत्री, ब्राह्मण, जट्ट सिख, भारतिय मूल के विदेशो में बस रहे आदि श्रद्धालु पुण्यात्मा कुलदेव बावा जित्तो और भगवती की अंश बुआ कौड़ी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं श्री माता वैष्णो देवी के भक्तों में बावा जित्तो की बहुत मान्यता है राज्य प्रशासन द्वारा मेले में विभिन्न सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है गोसाईं नत्थु शाह जी के वंशजों द्वारा बावा जित्तो बुआ कौड़ी की पुण्य समाधि स्थल पर भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण कार्य किया जा रहा है जिस से इस पावन स्थान की भव्यता और भी शोभमान हो रही है

           किसानों को सामंतीवाद की लूट-खसूट और अत्याचार से बचाने के लिए अपना बलिदान देने वाले अमर ब्राह्मण भक्त किसान बावा जित्तो को आज सवां छह सौ साल बाद भी डुग्गर प्रदेश के  महान लोकनायक एवम् कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है ‼












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